Sampoorna Yog Vidhya Pdf

योग का इतिहास क्या है ? 

इतिहास की दृष्टि से यह व्यक्त करना अत्यंत कठिन होगा कि विश्व में योग विद्या काआविर्भाव कब, कैसे और कहाँ से हुआ। यदि हम प्राचीन ग्रंथों पर नज़र डालें तो योग विद्या का उल्लेख वेदों और जैन धर्म के ग्रंथों में मिलता है। अतः कह सकते हैं कि योग विद्या की परंपरा प्राचीन काल से ही चली आ रही है। योग विद्या का प्रचलन उस समय से है जब योग से संबंधित ज्ञान लिपिबद्ध न होकर एक आचार्य से दूसरे आचार्य एवं अन्य शिष्यों तक यह विद्या गुरु-मुख से पहुँचाई जाती रही है परंतु इस तर्क-वितर्क में उलझना कि योग का आविर्भाव कब हुआ और किसने किया, यह उतना महत्वपूर्ण नहीं है बल्कि योग साधना के रहस्यों को कब और किसने उद्धघाटित किया यह प्रश्न महत्वपूर्ण है। योग कई हज़ार वर्षों से संसार में अपना वर्चस्व बनाए हुए है। इसने विश्व के सभी धर्मों को अनुप्राणित किया और मानव जाति को सही दिशा की ओर अग्रसर किया।

योग वास्तव में एक 'सार्वभौम् विश्व मानव धर्म' है। योग की दृष्टि में धर्म एक विज्ञान है किंतु योग को किसी धर्म विशेष से न जोड़ते हुए उसका अध्ययन करें तो पाएँगे कि हम अपने किसी धार्मिक अंग का ही पठन-पाठन कर रहे हैं और अपनी आस्था एवं धार्मिक भावनाओं को मानव जाति के कल्याण व उत्थान के लिए दृढ़ कर रहे हैं। इस प्रकार हम योग के रहस्य को स्पष्ट रूप से समझने का प्रयास कर सकते हैं।
जिन ऋषियों ने आत्मा का दर्शन कर लिया था यह उनके द्वारा प्रतिपादित विधियों का निर्देशन है और आध्यात्मिक आचार प्रणाली का क्रमिक दर्शन कराता है एवं साधक को अपने लक्ष्य तक पहुँचाने में समर्थ होता है। इस प्रकार व्यावहारिक रूप में योग दीक्षात्मक दर्शन एवं सार्वभौम् धर्म का प्रतीक है।


आज जनमानस का मानना है कि महर्षि पतंजलि ने योग का निरूपण किया जबकि योग के प्रथम गुरु भगवान शिव ही हैं। कुछ लोगों का मानना है कि हिरण्य-गर्भ रचित योगसूत्र जो अब लुप्त हो गए हैं, उन्हीं के आधार पर पतंजलि योग दर्शन की रचना हुई। महर्षि पतंजलि ने अष्टांग योग का प्रतिपादन किया जो कि यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान तथा समाधि के रूप में गृहीत है। भारतीय वाङ्ङ्घय में योग पर वृहत् चिंतन प्रस्तुत किया गया है। गीता में भगवान श्री कृष्ण कहते हैं -
तपस्विभ्योऽधिको योगी ज्ञानिभ्योऽपि मतोऽधिकः ।
कर्मिभ्यश्चाधिको योगी तस्माद्योगी भवार्जुन। 
हे अर्जुन ! तू योगी बन जा। क्योंकि तपस्वियों, ज्ञानियों और सकाम कर्म में निरत् जन - इन सभी में योगी श्रेष्ठ है।
श्रीमद्भागवत् महापुराण में अपने सखा उद्धव को उपदेश देते हुए श्री कृष्ण कहते हैं -
जितेन्द्रियस्य युकृस्य जितश्रवासस्य योगिनः।
मयि धारयतश्वेत उपतिष्ठन्ति सिद्धयः ।।
प्रिय उद्धव ! जब योगी इन्द्रिय, प्राण और मन को वश में करके अपना चित मुझमें મુદ્દ लगाकर मेरी धारणा करने लगता है तब उसके सामने बहुत सी सिद्धियाँ उपस्थित हो जाती हैं। इसका स्पष्ट अर्थ यह है कि योग के द्वारा सभी सिद्धियाँ की अष्टसिद्धियाँ) स्वतः प्राप्त हो जाती हैं। परंतु योग की चरम उपलब्धि मात्र आत्म दर्शन आत्म सुख और आत्मबल की प्राप्ति है।
योग की विभिन्न पद्धतियों एवं उपासना की अनेकानेक विधियों का प्रमुख लक्ष्य चित्त को राग, द्वेष आदि मल से रहित उसमें सत्वगुण का उद्रेक करके वृत्तियों को निर्मलता प्रदान करना है। योग स्वरूप-बोध से स्वरूपोपलब्धि तक की यात्रा है। अंतः श्वेतना की जागृति का योग अन्यतम साधन है।
चरित्र निर्माण में योग का जी महत्व है वह भी स्पष्ट है। मानव में निहित सात्विक तत्व जब योग साधना द्वारा जागृत हो उठते हैं तब वह मानवीय गुणों से मण्डित हो जाता है। क्षमा, दया, करुणा, ज्ञान-दर्शन और वैराग्य की अभिवृद्धि ही चरित्र निर्माण की भिक्तियाँ हैं।

योग के कितने प्रकार है ?

योग के प्रकार 

प्राचीन ग्रंथों में योग के अनेक प्रकारों का उल्लेख हुआ है रुचि-भेद से उन योगों के अनुगामी भी कई प्रकार के हैं। योग प्रदीप में राज योग, अष्टांग योग, हठ योग, लय योग, ध्यान योग,भक्ति योग, क्रिया योग, मंत्र योग, कर्म योग और ज्ञान योग का उल्लेख करते हुए योग को कई प्रकार का माना गया है। श्री कृष्ण भगवान् ने तीन योगों का उपदेश दिया है ज्ञान योग, कर्म योग, भक्ति योग

योग का अर्थ और परिभाषा

योग शब्द का सामान्य अर्थ है जुड़ना, मिलना, युक्त होना या एकत्र करना। संस्कृत में योग की व्युत्पत्ति युज धातु से मानी गई है, योग शब्द 'युज" धातु के बाद करण और भाव वाच्य में धज प्रत्यय लगाने से बना है। संस्कृत में युज धातु का प्रयोग रुधादिगण में संयोग के लिए प्रयुक्त हुआ है, 'युजिर योगे !"। दिवादिगण में समाधि के लिए 'युज समाधौ । चुरादिगण में संयमन के लिए प्रयुक्त हुआ है 'युज संयमने"। इन अर्थों में वर्णित 'युज" धातु में धज प्रत्यय जोड़ने से योग शब्द व्युत्पन्न हुआ है।
योग शब्द का व्यावहारिक अर्थ बहुत व्यापक है। इसका क्षेत्र भी बहुत विस्तृत है। इस प्रकार योग के विभिन्न अर्थ मिलते हैं।
योग सांख्य का ही क्रियात्मक रूप है। योग विश्व के सभी धर्म, संप्रदाय, मत-मतांतरों के पक्षपात और तर्क-वितर्क से रहित सार्वभौम् धर्म है, जो तत्व (आत्मा) का ज्ञान स्वयं के अनुभव द्वारा प्राप्त करना सिखलाता है और साधक को उसके अंतिम लक्ष्य (मोक्ष) तक पहुँचाता है।
आज योग से सम्बंधित अनेक प्रकार की भ्रांतियाँ फैली हुई हैं। यदि हम साफ़ शब्दों में समझे तो स्थूलता से सूक्ष्मता की ओर जाना तथा बहिरात्मा से अंतरात्मा की ओर जाना ही योग है। चित्त की वृत्तियों द्वारा हम स्थूलता की ओर जाते हैं अर्थात् हम स्थिर चित्त न होकर बहिर्मुख होते जाते हैं। हम जितने अस्थिर चित्त होते जाएँगे, रज और तम की मात्रा भी उतनी ही बढ़ती जाएगी। परंतु जब हम चित्त को अंतरोन्मुख करते जाएँगे तब हमारे अंदर उतने ही सत् अर्थात् सम्यक् ज्ञान और सम्यक् दर्शन का प्रादुर्भाव होता जाएगा और
आत्म-दर्शन प्राप्त कर निविकल्प अवस्था को प्राप्त हो सकेगे। 
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