महाभारत आर्य संस्कृति तथा भारतीय सनातनधर्मका एक अत्यन्त आदरणीय और महान् प्रमुख ग्रन्थ है । यह अनन्त अमूल्य रत्नोंका अपार भण्डार है भगवान् वेदव्यास स्वयं कहते हैं कि 'इस महाभारत में मैंने वेदोंके रहस्य और विस्तार, उपनिषदों के सम्पूर्ण सार, इतिहास-पुराणों के उन्मेष और निमेष, चातुर्वर्ण्य- के विधान, पुराणों के आशय ग्रह-नक्षत्र तारा आदिके परिमाण, न्याय, शिक्षा, चिकित्सा, दान, पाशुपत ( अन्तर्यामीकी महिमा ), तीर्थों, पुण्य देशों, नदियों, पर्वतों, वनों तथा समुद्रोंका भी वर्णन किया है ।' अतएव महाभारत महाकाव्य है, गुढ़ार्थमय ज्ञान-विज्ञान - शास्त्र हैं, धर्मग्रन्थ है। राजनीतिक दर्शन है, निष्काम कर्मयोग-दर्शन है, भक्ति-शास्त्र है, अध्यात्म-शास्त्र है, आर्यजातिका इतिहास है और सर्वार्थसाधक तथा सर्वशास्त्रसंग्रह है।
सबसे अधिक महत्त्वकी बात तो यह है कि इसमें एक, अद्वितीय, सर्वज्ञ, सर्वशक्ति- मान् सर्वलोकमहेश्वर, परमयोगेश्वर, अचिन्त्यानन्त गुणगणसम्पन्नः सृष्टि-स्थिति प्रलयकारी विचित्र लीलाविहारी, भक्त-भक्तिमान्, भक्त-सर्वख, निखिलरसामृतसिन्धु अनन्तप्रेमाधार, प्रेमघनविग्रह, सच्चिदानन्दघन, वासुदेव भगवान श्रीकृष्णके गुण गौरवका मधुर गान है। इसकी महिमा अपार है । औपनिषद ऋषिने भी इतिहास-पुराणको पञ्चम वेद बताकर महाभारतकी सर्वोपरि महत्ता स्वीकार की है।
महाभारतमें आया है कि भगवान् व्यासदेवने साठ लाख श्लोकोंकी एक महाभारत- संहिताका निर्माण किया था । उस समय महान् ग्रन्थके चार छोटे-बड़े संस्करण थे। इनमें पहला तीस लाख श्लोकोंका था, जिसे नारदजीने देवलोकमें देवताओंको सुनाया था। दूसरा पंद्रह लाख श्लोकोंका था, जिसको देवल और असित ऋषिने पितृलोकमै पितृगणों को सुनाया था। तीसरा जो चौदह लाख श्लोकोंका था, शुकदेवजीके द्वारा गन्धव, यक्षों आदिको सुनाया गया और शेष एक लाख श्लोकोंके चौथे संस्करणका प्रचार मनुष्य- लोकम हुआ, जो श्रीवैशम्पायनजीके द्वारा जनमेजय तथा ऋषियोंको श्रवण कराया गया। इसी एक लाख श्लोकों वाले विभिन्न उपाख्यानोंसे युक्त ग्रन्थको 'आदि महाभारत' माना जाता है।*
कुछ सजनों का कहना है कि महाभारत के तीन स्वरूप हैं--'जय', 'भारत' और 'महाभारत' । 'जय' आठ हजार लोकोंका था, 'भारत' चौबीस हजार श्लोकोंका बना तथा उसीमें विविध उपाख्यान जोड़कर एक लाख श्लोकोंका 'महाभारत' बनाया गया। इनके रचयिता क्रमशः व्यास, वैशम्पायन और सौति उग्रश्रवा हैं । अन्य महानुभावों का कथन है कि जय और महाभारत एक ही ग्रन्थके नाम हैं और भारत इनका संक्षिप्त संस्करण है तथा इनके रचयिता तीन नहीं, एकमात्र श्रीव्यासदेव ही हैं। महाभारतमें यह स्पष्ट कहा गया है-
इदं शतसहस्रं हि इलोकानां पुण्यकर्मणाम् । सत्यवत्यात्मजेनेह व्याख्यातममितौजसा ॥
( आदि० ६२ । १४ )
जयो नामेतिहासोऽयं श्रोतव्यो विजिगीषुणा ( आदि० ६२ । २०)
अर्थात् 'अमित तेजस्वी सत्यवती पुत्र श्रीव्यासके द्वारा ही इस लोकमें एक लाख श्लोकोंका निर्माण हुआ है । यह 'जय' नामक इतिहास है। विजयकी इच्छा रखनेवालोंको इसका श्रवण करना चाहिये । कुछ समय पहले महाभारत के अन्वेषक विद्वान् पं० श्रीपाद दामोदर सातवलेकर महोदयने लिखा था कि 'आजतक खोजमें कहीं भी 'जय' अथवा 'भारत' नामक पृथक कोई भी ग्रन्थ उपलब्ध नहीं हुआ इससे भी यही सिद्ध होता है कि 'महाभारत' सम्पूर्ण ही श्रीव्यासदेवरचित है।
महाभारत के पुरातत्त्व प्रमाण
महाभारत कालीन सरस्वती नदी(हरे रंग में)
सरस्वती नदी
प्राचीन वैदिक सरस्वती नदी का महाभारत में कई बार वर्णन आता हैं, बलराम जी द्वारा इसके तट के समान्तर प्लक्ष पेड़ (प्लक्षप्रस्त्रवण, यमुनोत्री के पास) से प्रभास क्षेत्र (वर्तमान कच्छ का रण) तक तीर्थयात्रा का वर्णन भी महाभारत में आता है।
कई भू-विज्ञानी मानते हैं कि वर्तमान सूखी हुई घग्गर-हकरा नदी ही प्राचीन वैदिक सरस्वती नदी थी, जो ५०००-३००० ईसा पूर्व पूरे प्रवाह से बहती थी और लगभग १९०० ईसा पूर्व में भूगर्भी परिवर्तनों के कारण सूख गयी थी। ऋग्वेद में वर्णित प्राचीन वैदिक काल में सरस्वती नदी को नदीतमा की उपाधि दी गई थी। उनकी सभ्यता में सरस्वती नदी ही सबसे बड़ी और मुख्य नदी थी, गंगा नहीं।
भूगर्भी परिवर्तनों के कारण सरस्वती नदी का पानी यमुना में चला गया, गंगा-यमुना संगम स्थान को 'त्रिवेणी' (गंगा-यमुना-सरस्वती) संगम मानते है। इस घटना को बाद के वैदिक साहित्यों में वर्णित हस्तिनापुर के गंगा द्वारा बहाकर ले जाने से भी जोड़ा जाता है क्योंकि पुराणों में आता है कि परीक्षित की २८ पीढियों के बाद गंगा में बाढ़ आ जाने के कारण सम्पूर्ण हस्तिनापुर पानी में बह गया और बाद की पीढियों ने कौशाम्बी को अपनी राजधानी बनाया।
महाभारत में सरस्वती नदी के विनाश्न नामक तीर्थ पर सूखने का सन्दर्भ आता है जिसके अनुसार मलेच्छों से द्वेष होने के कारण सरस्वती नदी ने मलेच्छ (सिंध के पास के) प्रदेशो में जाना बंद कर दिया।
द्वारका
भारतीय पुरातत्त्व सर्वेक्षण विभाग ने गुजरात के पश्चिमी तट पर समुद्र में डूबे ४०००-३५०० वर्ष पुराने शहर खोज निकाले हैं। इनको महाभारत में वर्णित द्वारका के सन्दर्भों से जोड़ा गया है। प्रो॰एस.आर राव ने कई तर्क देकर इस नगरी को द्वारका सिद्ध किया है। यद्यपि अभी मतभेद जारी है क्योंकि गुजरात के पश्चिमी तट पर कई अन्य ७५०० वर्ष पुराने शहर भी मिल चुके हैं।
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महाभारत के विभिन्न नाम
यह महाकाव्य 'जय संहिता', 'भारत' और 'महभारत' इन तीन नामों से प्रसिद्ध हैं। वास्तव में वेद व्यास जी ने सबसे पहले १,००,००० श्लोकों के परिमाण के 'भारत' नामक ग्रंथ की रचना की थी, इसमें उन्होने भारतवंशियों के चरित्रों के साथ-साथ अन्य कई महान ऋषियों, चन्द्रवंशी-सूर्यवंशी राजाओं के उपाख्यानों सहित कई अन्य धार्मिक उपाख्यान भी डाले। इसके बाद व्यास जी ने २४,००० श्लोकों का बिना किसी अन्य ऋषियों, चन्द्रवंशी-सूर्यवंशी राजाओं के उपाख्यानों का केवल भारतवंशियों को केन्द्रित करके 'भारत' काव्य बनाया। इन दोनों रचनाओं में धर्म की अधर्म पर विजय होने के कारण इन्हें 'जय' भी कहा जाने लगा। महाभारत में एक कथा आती है कि जब देवताओं ने तराजू के एक पासे में चारों "वेदों" को रखा और दूसरे पर 'भारत ग्रंथ' को रखा, तो 'भारत ग्रंथ' सभी वेदों की तुलना में सबसे अधिक भारी सिद्ध हुआ। अतः 'भारत' ग्रंथ की इस महत्ता (महानता) को देखकर देवताओं और ऋषियों ने इसे 'महाभारत' नाम दिया और इस कथा के कारण मनुष्यों में भी यह काव्य 'महाभारत' के नाम से सबसे अधिक प्रसिद्ध हुआ।
ग्रन्थ लेखन की कथा
गणेश जी ने महाभारत क्यू लिखी
वेद व्यास से सुनकर भगवान गणेश महाभारत लिखते हुए
महाभारत में ऐसा वर्णन आता है कि वेदव्यास जी ने हिमालय की तलहटी की एक पवित्र गुफा में तपस्या में संलग्न तथा ध्यान योग में स्थित होकर महाभारत की घटनाओं का आदि से अन्त तक स्मरण कर मन ही मन में महाभारत की रचना कर ली। परन्तु इसके पश्चात उनके सामने एक गंभीर समस्या आ खड़ी हुई कि इस काव्य के ज्ञान को सामान्य जन साधारण तक कैसे पहुँचाया जाये क्योंकि इसकी जटिलता और लम्बाई के कारण यह बहुत कठिन था कि कोई इसे बिना कोई गलती किए वैसा ही लिख दे जैसा कि वे बोलते जाएँ। इसलिए ब्रह्मा जी के कहने पर व्यास गणेश जी के पास पहुँचे। गणेश जी लिखने को तैयार हो गये, किंतु उन्होंने एक शर्त रखी कि कलम एक बार उठा लेने के बाद काव्य समाप्त होने तक वे बीच में नहीं रुकेंगे।[कृपया उद्धरण जोड़ें] व्यासजी जानते थे कि यह शर्त बहुत कठनाईयाँ उत्पन्न कर सकती हैं अतः उन्होंने भी अपनी चतुरता से एक शर्त रखी कि कोई भी श्लोक लिखने से पहले गणेश जी को उसका अर्थ समझना होगा। गणेश जी ने यह प्रस्ताव स्वीकार कर लिया। इस तरह व्यास जी बीच-बीच में कुछ कठिन श्लोकों को रच देते थे, तो जब गणेश उनके अर्थ पर विचार कर रहे होते उतने समय में ही व्यास जी कुछ और नये श्लोक रच देते। इस प्रकार सम्पूर्ण महाभारत ३ वर्षों के अन्तराल में लिखी गयी। वेदव्यास जी ने सर्वप्रथम पुण्यकर्मा मानवों के उपाख्यानों सहित एक लाख श्लोकों का आद्य भारत ग्रंथ बनाया। तदन्तर उपाख्यानों को छोड़कर चौबीस हजार श्लोकों की भारत संहिता बनायी। तत्पश्चात व्यास जी ने साठ लाख श्लोकों की एक दूसरी संहिता बनायी, जिसके तीस लाख श्लोकों देवलोक में, पंद्रह लाख पितृलोक में तथा चौदह लाख श्लोक गन्धर्वलोक में समादृत हुए। मनुष्यलोक में एक लाख श्लोकों का आद्य भारत प्रतिष्ठित हुआ। महाभारत ग्रंथ की रचना पूर्ण करने के बाद वेदव्यास जी ने सर्वप्रथम अपने पुत्र शुकदेव को इस ग्रंथ का अध्ययन कराया तदन्तर अन्य शिष्यों वैशम्पायन, पैल, जैमिनि, असित-देवल आदि को इसका अध्ययन कराया। शुकदेव जी ने गन्धर्वों, यक्षों और राक्षसों को इसका अध्ययन कराया। देवर्षि नारद ने देवताओं को, असित-देवल ने पितरों को और वैशम्पायन जी ने मनुष्यों को इसका प्रवचन दिया। वैशम्पायन जी द्वारा महाभारत काव्य जनमेजय के यज्ञ समारोह में सूत सहित कई ऋषि-मुनियों को सुनाया गया था।
महाभारत की विशालता
महाभारत की विशालता और दार्शनिक गूढता न केवल भारतीय मूल्यों का संकलन है बल्कि हिन्दू धर्म और वैदिक परम्परा का भी सार है। महाभारत की विशालता का अनुमान उसके प्रथमपर्व में उल्लेखित एक श्लोक से लगाया जा सकता है :
"जो यहाँ (महाभारत में) है वह आपको संसार में कहीं न कहीं अवश्य मिल जायेगा, जो यहाँ नहीं है वो संसार में आपको अन्यत्र कहीं नहीं मिलेगा। "
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🌹🏵️ ।।जय मां भवानी।।
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