असली कोका शास्त्र || Asali koka Shastra pdf download

असली कोकशास्त्र


जैसे महत्वपूर्ण कोकशास्त्र ग्रन्थ के रचयिता- कोकापंडित का संक्षिप्त जीवन

किसी समय काश्मीर देश में महाराज शान्तिदेव राज्य करते थे । उनकी न्याय-प्रियता और प्रजा वात्सल्य के कारण प्रजा उन्हें पिता के समान स्नेह करती थी । प्रजा का ऐसा स्नेह देखकर पुत्र- विहीन होने पर भी उन्हें वृद्धावस्था में पुत्राभाव के दुःख का अनु- भव नहीं होता था ।

ठोक वैसे ही उनके प्रधान मन्त्री पं० दीनानाथ जी थे । जो अनुभवी और बुद्धिमान व्यक्ति थे वे महाराज के समवयस्क और 1 परम स्नेही थे । प्रजा की देख-रेख का भार प्रायः उन्हीं पर था । प्रजा भी उन्हें जी-जान से प्यार करती थी । दैव-दुर्विपाक से इनके भी कोई सन्तान न थी ।

एक दिन महाराज ओर प्रधान मन्त्री काश्मीरी पर्वतों पर भ्रमण करने के लिये गये थे। काश्मीर देश ऐसा सुन्दर पहाड़ियों से घिरा हुआ है, जो दुर्ग की प्राचीर की भाँति उसे चारो ओर से घेरे हुए हैं उन पहाड़ियों पर अंगूर, फालसा, अखरोट, बादाम आदि अनेक प्रकार के मेवे हर समय, मौसिम के लिहाज से लदे रहते हैं। कन्द-फल-फूल की तो गिनती ही नहीं। ऐसा हरा-भरा प्रदेश भू-मण्डल पर और कहीं दिखयी नहीं देता, यह अत्युक्ति नहीं, बल्कि यथार्थ ही है।


उन पर्वतों की गुफाओं में तपस्वी, योगी, महात्मा भी निवास करते हैं। जिनको सभी प्रकार की सुविधायें प्राप्त हैं। पीने के लिये शीतल जल के झरने और खाने के लिये तरह-तरह के मेत्रे ! ईश्वरीय-सृष्टि देखने के लिये नाना प्रकार के रंग-बिरंगे पशु-पंक्षियों के किलाल दिखयी देते हैं ।

महाराज और मन्त्री पर्वत प्रदेशों में घूमते हुए जब एक झरने पर जा बैठे, तब उन्हें एक हिरन - हिरनी का जोड़ा नदी तट पर दिखायी दिया। उनके साथ दो छोटे-छोटे बच्चे भी उछल-कूद मचा रहे थे । हिरनी बड़े स्नेह के साथ उन बच्चों को ओर देख रही थी । बच्च जब कुछ दूर हट जाते थे, अथवा झाड़ो की ओट में हो जाते थे तो हिरनी व्याकुल होकर उन्हें ढूँढ़ने के लिये झाड़ियों का चक्कर लगाती थी। हिरन मन्थर गति से इधर-उधर घूम रहा था।

उनकी इन हरकतों को देवकर महाराज का मन उदास हो गया और किसी अज्ञात भाव के उदय हो जाने से उनके नेत्रों में जल भर आया। उन्होंने अश्रु-विन्दु छिपाने के लिये अपना मुख उस ओर से फेर लिया । मन्त्री निकट ही बैठे हुए थे । उनसे महा- राज का यह व्यापार नहीं छिपा । उन्होंने कहा- महाराज, आपकी ऐसी करुण-दशा क्यों दिखायी दे रही है ? कौन दुःखद विचार आपके हृदय में उत्पन्न हुआ जिससे ऐसे सुन्दर आनन्दप्रद प्रदेश में रहते हुए भी आपकी आँखों में आँसू छलक आये ? आज तक आपने कोई बात मुझसे छिपाने की चेष्टा

बीच ही में रोककर महाराज ने कहा, यह सच है, मैंने कभी कोई बात आपसे नहीं छिपायी और इसके छिपाने की भी कोई आवश्यकता नहीं प्रतीत होती मन्त्रिन्, आपने वह मृगों का जोड़ा अपने बच्चों के साथ खेलता हुआ देखा ? देखा, वह निर्जन प्रदेश में कैसे आनन्द से मनोविनोद कर रहा है । उसके पास दुःख और त्रास का लेश भी दिखायी नहीं देता हम राजा हैं, हमारे पास सेना है, घोड़े हैं, हाथी हैं, तथा ऐशो-आराम के सभी सामान मौजूद हैं। महल और उनमें रहनेवाली रानी, सेवक सेविकायें भी हैं। किसी प्रकार की धन-सम्पत्ति की भी कमी नहीं । इतना सब कुछ होने पर भी सब व्यर्थ है । पुत्र-हीन-गृह श्मशान के समान प्रतीत होता है इन मृगों के पास उनमें से कोई भी वस्तु नहीं; किन्तु ईश्वर-प्रदत्त वस्तुओं का उपभोग करते हुए केवल अपने पुत्रों के साथ दम्पत्ति कितने आनन्दित दिखायी दे रहे हैं।

मन्त्रा ने कहा, आपका कहना यथार्थ है। अब हम लोगों के और जीवन के दिन ही कितने हैं। परमात्मा ने अब तक भी हम पर कृपा नहीं की। इसमें परमात्मा का क्या दोष ? हमारा भाग्य ही ऐसा है ।

मन्त्री और महाराज में जिस समय उपरोक्त बातें हो रही थीं ठीक उसी समय सामने से एक जटाधारी तपस्वी आते दिखाई दिये । उनके हाथ में एक कमंडलु और पांव में खड़ाऊँ थीं ।

ये महात्मा नदी के उस पार रहते थे। नदी का जल बहुत गहरा न था। तपस्वी नदीतट पर आ पहुँचे। वे अधोदृष्टि किये आ रहे थे इस लिये उनकी दृष्टि इन दोनों पर नहीं पड़ी । तट पर पहुँचते ही उन्हें दो व्यक्ति एक शिला के पास दिखायी दिये ।

नजर चार होते ही महाराज ने मुककर प्रणाम किया । मन्त्री ने भी उनका साथ दिया। महात्मा ने आशीर्वाद देते हुए कहा, राजन् ! आप यहाँ कैसे ?

कुशल तो है ? महाराज ने नम्रतापूर्वक कहा, परमात्मा की कृपा से सब कुशल ही है।

महात्मा ने कहा, सब कुशल ही है, इसके क्या माने ? आप

ऐसे उदास वचन क्यों बोल रहे हैं ? महाराज ने कुछ उत्तर नहीं दिया। महात्मा ने मन्त्री जी से -कहा, आप तो इनकी चिन्ता के कारण से अवश्य ही अवगत होंगे ? मन्त्री ने कहा, - हाँ भगवन्, आज एक दृश्य देखकर एकाएक इनकी ऐसी हालत हो गयी । यद्यपि सब से कहने योग्य वह बात - नहीं है, किन्तु आप जैसे महात्माओं से छिपाना भी व्यर्थ है ।

इसके बाद मन्त्री ने महाराज की अनुमति लेकर चिन्तित होने का कारण कह सुनाया । जिसे सुनकर महात्मा ने कहा, आप चिन्ता न करें, ईश्वर चाहेंगे तो आपकी अभिलाषा पूर्ण होगी ।

इतना कहकर महात्मा उन दोनों को साथ ले अपनी कुटो की ओर चल दिये। उनकी कुटिया करीब ही थी । किन्तु पर्वत की ऊँचाई - नीचाई के कारण उन्हें पहुँचने में करीब आधा घण्टा लगा । कुटी में पहुँचकर इन दोनों को एक कुशासन पर बैठा दिया ओर आप वहाँ से चले गये । थोड़ी देर बाद एक लम्बी लता लिये हुए आ पहुँचे और उसे महाराज के सामने रखकर बोले, — इस वन-लता में १५ गाँठ हैं। हर एक गाँठ के ऊपर सूत से कसकर बाँध दें। एक गाँठ किसी बर्त्तन में रखकर काट लीजियेगा। इसमें से सफेद दुध के समान रस निकलेगा । उसका चारु-पिंड बना लेना । ये सोम- - लता नाम की प्रसिद्ध लता है । इसके सेवन से अवश्य संतान प्राप्त होती है ।

[ २ ]

कुछ दिनों के बाद ईश्वर की कृपा से महाराज और मन्त्रो दोनों के घर में पुत्र उत्पन्न हुए। महाराज ने अपने पुत्र का नाम शम्भु-सिंह रक्खा और मंत्री पं० दीननाथ जो ने अपने पुत्र का नाम कामनाथ प्रसिद्ध किया। बड़े-बड़े अनुभवी विद्वान् पंडितों द्वारा बालकों की परीक्षा करायी गयी । बालकों की मुखाकृति देखकर सभी ने एक स्वर से उनका भविष्य सुखमय बतलाया ।

कामनाथ जब बोलने लायक हुआ, तब उसकी कोकिल समान मधुर आवाज को सुनकर उसके पिता उसे 'कोका' कहकर पुकारने लगे। इस नाम के आगे कामनाथ नाम छिप गया और वे बड़े होकर भी इसी नाम से प्रसिद्ध हुए। जब कोका छोटे थे, तभी पं० दीनानाथ जी उन्हें अच्छे-अच्छे शिक्षाप्रद श्लोक कंठ कराया करते थे! यहाँ तक कि अक्षराभ्यास से लेकर व्याकरणादि सब शास्त्र उन्होंने ही स्वयं पढ़ाये और समयानुसार सत्र संस्कार भी यथाविधि कराये ।

जिन विषयों को वे स्वयं नहीं जानते थे, उन विषयों को उन्होंने अन्य उच्चकोटि के विद्वानों से पढ़ाया। कोका की बुद्धि बड़ी अपूर्व थी । और स्मरणशक्ति भी असीम थी। जैसे वे सर्वाङ्ग सुन्दर उत्पन्न हुए, वैसे ही अपूर्व विद्वान् भी हो गये । उनकी ऐसा उन्नति देखकर उनके माता-पिता फूले नहीं समान थे ।

एक दिन देव संयोग से कोका को साथ लेकर मंत्री जी राज- दर्वार में गये । कोका की मोहिनी सूरत देखकर महाराज शान्ति- देव जी बड़े प्रसन्न हुए। युवराज शम्भुसिंह भी दर्वार में ही बैठे थे । उन्होंने भी अनेक विद्याओं का अध्ययन किया था ।
महाराज ने मंत्रीजी से कहा, - मन्त्रीजी, अब हमलोगों की इच्छा परमात्मा ने पूर्ण कर दी । अब हमें राज-पाट का भार लड़कों को सौंप देना चाहिये । मेरी समझ में अब लड़के पूर्ण योग्य हो गये हैं।

थोड़ी देर के बाद कोकापंडित की बुद्धि की परीक्षा के लिये उन्हें सम्बोधन कर महाराज ने कहा, जितना प्रेम संतान के प्रति माता-पिता को होता है, उतना संतान को माता-पिता के प्रति होता है या नहीं ?

कोका पंडित ने उठकर बड़ी नम्रता के साथ कहा, - राजन्, यह प्रश्न जितना कठिन है, उतना ही महत्वपूर्ण भी है। मैं इसका उत्तर अपनी स्वल्प- बुद्ध्यनुसार देता हूँ । संभव है कोई त्रुटि हो तो उसे महाराज क्षमा करेंगे ।

कोका - दोनों में निःस्वार्थ प्रेम बराबर ही होता है, किन्तु स्वार्थमय-प्रेम में अवश्य अन्तर होता है ।

महाराज ने कहा, क्या कोई दृष्टान्त देकर समझा सकते है। ? कोका पण्डित ने कहा, – हाँ इतिहास में ऐसे बहुत से उदा- हरण आये हैं । जैसे हिरण्यकश्यप ने प्रह्लाद को कितने कष्ट दिये ? सिर्फ इस लिये कि वह ईश्वर के स्थान पर उसी के नाम की माला फेरे । दुसरा उदाहरण है अर्जुन का । जिसने अपनी सेना की रक्षा के लिये अपने बूढ़े पितामह भीष्म जी के प्रारण उन्हीं से उपाय पूछ कर लिये । यहाँ दोनों स्थान पर स्वार्थ था । जहाँ स्वार्था--भाव होता है वहाँ प्रेमाभाव का कारण भी दिखायी नहीं देता ।

कोका पण्डित का उत्तर सुनकर महाराज बहुत प्रसन्न हुए । उन्होंने उसी समय दर्द्वारियों को सम्बोधन कर कहा, मैं प्रधान मन्त्री दीनानाथ जी के पद का उत्तराधिकारी कोका पण्डित को ही नियुक्त करता हूँ । आपलोगों की क्या राय है ? दर्बारियों ने एक स्वर से उनका समर्थन किया ।

[ ३ ]

कोका पण्डित देश-देशान्तरों में घूमने के लिये चले गये। कई वर्ष के बाद जब वे लौटे तब उन्हें राज्य-सिंहासन पर शम्भुसिंह राज्य करते दिखायी दिये । महाराज का आज्ञापत्र उनके नाम लिखा हुआ था कि जब वे लौटकर आवें तब उन्हें प्रधान मन्त्री का पद देकर प्रधान मन्त्री पं० दीनानाथ जी स्वतन्त्र हो सकते हैं ।

राज-काज करते हुए काका पण्डित और महाराज शम्भुसिंह में चढ़ा प्रेमभाव उत्पन्न हो गया वे प्रायः जहाँ घूमने-फिरने जाते थे साथ ही साथ जाते थे ।

एक दिन राजदवर ठसाठस भरा हुआ था दर्वारीगरण यथा स्थान बैठे हुए थे । ठीक उसी समय एक सुन्दरी स्त्री ने दुर्वार में • प्रवेश किया। वह इतने बारीक वस्त्र पहने हुए थी कि उसके अंग प्रत्यंग साफ दिखायी दे रहे थे। ऐसा मालूम होता था मानो वह कोई वस्त्र धारण ही किये हुए नहीं है ।




सब दर्वारियों की नजर उस ओर गयी। किन्तु लज्जा से उन्हें अपना मुँह नीचा कर लेना पड़ा। महाराज और मंत्रि-मंडल की भी वही दशा हुई। महाराज ने अधोदृष्टि किये हुए उस रमणी से नम्रतापूर्वक कहा, - आप इस प्रकार निरावस्त्र की भाँति राजसभा 1 में क्यों आयी हैं ?

रमणी ने कहा, क्या आप मेरे हाथ में देखते हैं कि मैं क्या लिये हुए हूँ ?

महाराज ने कहा, तुम्हारे हाथ में क्या है, इसका जवाब हम तभी दे सकते हैं जब तुम किसी मोटे वस्त्र से अपने अंग ढंक

लो। इस प्रकार निर्लज्जा स्त्री को हम कोई जवाब नहीं दे सकते । उस स्त्री ने कहा,—मुझे यहाँ कोई लज्जा की बात दिखायी नहीं देती। क्योंकि लज्जा पुरुषों से की जाती है, स्त्रियों से नहीं ।

महाराज ने पूछा, क्या तुम्हें यहाँ सब स्त्रियें दिखायी देती हैं ? उस स्त्री ने कहा, यहाँ ही क्या, मुझे तो आजतक कहीं कोई मर्द दिखायी ही नहीं दिया । या तो खिये और या हिजड़े ही दिखायी दिये ।

यह बात सुनकर महाराज को बड़ा क्रोध आया। उन्होंने कड़क कर कहा, — इस बेहूदी औरत को दर्वार से बाहर निकाल दो ।

उसी समय प्रधान मन्त्री कोकापंडित ने महाराज से नम्रता- पूर्वक कहा, राजन, इस प्रकार स्त्री का तिरस्कार राजसभा से करना अच्छा नहीं। वह ऐसा क्यों कह रही है, इसका कारण जानना ही उत्तम होगा। यदि आप आज्ञा दें तो मैं दो-चार बातें करूँ ?

राजा ने कहा, अच्छा, जैसी तुम्हारी इच्छा ।

कोका पण्डित ने उस स्त्री से पूछा, क्या आपको मोटे वस्त्र पहनने में कोई एतराज है ? वस्त्र पहन लेने पर हम आपकी सभी बातों का जवाब देंगे।

रमणी ने कहा,—नहीं मुझे कोई एतराज भी नहीं है। किन्तु मेरे पास इस समय वस्त्र कहाँ है ?

उस स्त्री की बात सुनकर कोका पंडित ने अपना दुशाला उतार कर उसे दे दिया। जब रमणी ने दुशाला ओढ़ लिया तब सब की दृष्टि फिर उसकी ओर गयी। सब ने देखा, स्त्री की आँखें अग्नि के समान लाल हैं। बाल छोटे, किन्तु बिखरे हुए हैं। मदन ताप से उसका सारा शरीर जल रहा है। नाक के छिद्र स्थूल हैं, देह मोटी और सुडौल है । उन्मादिनी की भाँति उसके सब अंग फरफरा रहे हैं। कुछ आभूषण अंग-प्रत्यंग में यथास्थान सुशोभित हैं। वह अपने हाथ में एक गुलाब का फूल लिये सूंघ रही है।

मन्त्रो ने पूछा, क्या आप इसी पुष्प के लिये पूछ रही हैं ? इससे आपका क्या मतलव १ रमणी ने कहा - इसी का समझने वाला कोई नहीं मिला ।

मन्त्री ने कहा,—इसमें क्या रक्खा है। फूल गुलाब का है, खिला हुआ है, खुशबूदार है और देखने में सुहावना है ।
रमणी ने कहा, कुछ और भी ? 

मन्त्री ने कहा, — और क्या ? आप स्पष्ट क्यों नहीं कह देतीं, आप क्या चाहती हैं ?

उस स्त्री ने कहा, — फूल का जीवन कब सार्थक माना जाता है ? मन्त्री ने कहा, जब वह भोग में आ जाय ।

रमणी ने कहा, — हाँ, आप कुछ समझदार मालूम होते हैं। सम्भवतः आप मेरे दृष्टान्त से दारिष्टान्त को भी समझ गयेहोंगे ?

कोका पंडित थोड़ी देर तक मन ही मन सोचकर बोले, - हाँ, तुम्हारे अभिप्राय को मैंने कुछ समझा । क्या तुम पुष्प की भाँति अपने आप को सार्थक करना चाहती हो ?

स्त्री ने कुछ जवाब नहीं दिया। महाराज बड़े गौर से उन दोनों की बातें सुन रहे थे । उन्होंने कोका पंडित से कहा, इन बातों का कुछ मतलब समझ में नहीं आया ।

कोका पंडित ने कहा, महाराज, यह कामिनी काम-विह्वला दिखायी दे रही है । कामान्ध होकर इसने उपरोक्त बातें कही हैं। महाराज ने कहा, तो इसका उपाय क्या किया जा सकता

है ? क्या इसका पति नहीं है ? यह काम तो उसी का है, इसका राज-दवार से क्या सम्बन्ध ?

मन्त्री ने कहा, — आपका कहना सत्य है । किन्तु जब उसकी सन्तुष्टि नहीं होती, तब वह राजदवर में न कहे तो और कहाँ कहे ?

महाराज ने कहा, तो हम ऐसी स्त्रियों का क्या प्रबंध कर

• सकते हैं ?

मंत्री ने कहा, रति-शास्त्र सम्बन्धी ग्रन्थों का मैंने अध्ययन किया है। सम्भव है मैं इसे सन्तोष दिला सकूँ। वाह्य रति इसका

परम औषध है । आगे आपकी जैसी इच्छा हो ।

उस कामिनी ने कहा, मेरा अभी विवाह किसी से नहीं हुआ हैं । मैं विवाह की इच्छा से ही बाहर निकली हूँ। मैंने जिस जिस वर को चुना, उसी ने मेरी प्रतिज्ञा को सुनकर मुझसे विवाह करने से इनकार कर दिया। सम्भव है मेरी उस प्रतिज्ञा तथा उसका कारण जानने की इच्छा आप को भी हुई होगी। इस लिये मैं उसे स्पष्ट किये देती हूँ |

जब मैं विवाह योग्य हुई, मेरे घर पर विवाह के पैगाम आने लगे। मेरी बहुत सी मिलनसार सखियें थीं, जिनकी गोद में एक- एक दो-दो सन्तानें खेल रही थीं। उन्होंने कहा, तुम हमारा कहा मानो तो विवाह मत करो, नहीं तो पछताओगी। क्योंकि हमारा तुम्हारा एक ही स्वभाव है। विवाह से तुम्हें सुख नहीं मिलेगा । यदि तुम्हें सन्तान की इच्छा हो तो हमसे सन्तान गोद लेकर पाल-पोष सकती हो।

तब मैंने कहा, क्या विवाह सन्तान सुख के लिये ही किया

जाता है ? और कोई प्रयोजन नहीं ? तब सखियों की ओर से मुझे यह जवाब मिला कि हाँ, शास्त्र मर्यादा तो यही है, किन्तु तुम्हारी अभिलाषा भी हम समझती हैं। धर्म- मर्यादा में रहते हुए उसका पूरा होना कठिन है। क्योंकि लिखा है - "काम अष्टगुणः स्मृतः ।" अर्थात् स्त्रियों में आठ गुना काम होता है । उसे दबाने के लिये अष्टगुरणी कामी पुरुष की आवश्यकता है। जिसका मिलना असंभव है । धर्म- मर्यादा में एक पति से अधिक हो नहीं सकता, इस लिये काम शान्ति हो नहीं सकती। अतएव हम सब पछता रही हैं और तुम्हें सावधान करती हैं।

सखियों का ऐसा कथन सुनकर मैंने ऐसी प्रतिज्ञा की कि जब तक मेरी इच्छा पूर्ण करने वाला कोई बर नहीं मिलेगा तब तक मैं विवाह ही नहीं करूँगी । सा बराबर कई वर्ष से अनुकूल बर की खोज में घूम रही हूँ किन्तु अभी तक जब कोई नहीं मिला तब मैंने सोचा शायद राज-दवोर में मिल जाय। इसी लिये यहाँ आयी थी, किन्तु अष्टगुणी पुरुष

कोका पण्डित ने बीच ही में रोककर कहा, तुम्हारे दर्वार में आते ही प्रश्नोत्तर से मैंने निश्चय कर लिया था कि तुम हस्तिनी जाति की स्त्री हो रहा अष्टगुणा कामी पुरुष, सो उसका मिलना नितान्त असंभव है किन्तु तुम निराश न हो। तुम्हारी आशा पूरी हो जायगी। स्त्री की इच्छा पूरी करने के लिये अधिक कामी पुरुष की आवश्यकता नहीं, केवल कुछ क्रियाओं का ज्ञान होना चाहिये।

महाराज ने कहा, — अच्छा तो आप इसको सन्तुष्टि का साधन बतला दें।

कोका पण्डित ने रमणी से कहा, तुम मेरी एक बात मानोगी ? रमणी ने कहा, – हाँ मानने योग्य होगी तो अवश्य मानूँगी मन्त्री ने कहा, तुम अपने सदृश्य रूप-यौवन-सम्पन्न किसी पुरुष से विवाह कर लो। मैं तुम्हारी तृप्ति उसी पुरुष से करा दूंगा, यह मेरी प्रतिज्ञा है । यदि मैं तुम्हारी इच्छा पूरी न करा सकूँगा, तो मन्त्री पद का त्याग कर दूंगा। मुझे विवाह से पूर्व उस पुरुष को दिखा देना । अस्तु, घर का पता राज-दर्वार में लिखा दो और घर जाओ ।

रमणी मन्त्री के कथनानुसार दर्वार से चली गयी ।

[ ४ ]

एक वर्ष के बाद गोद में बालक लिये एक रमणी ने दर्वार में प्रवेश किया। उसके साथ एक खूबसूरत नौजवान आदमी भी था । रमणी ने महाराज को सनम्र मुककर प्रणाम किया और बोली, महाराज की जय हो !

महाराज ने कहा, क्या पारसाल दवर में आप ही आयी थीं ? ने रमणी ने कहा- हाँ महाराज ! मैं ही आयी थी । आपके प्रधान मन्त्री को कापगिडत जी की वाणी सत्य हुई। आज मैं अपनी सखियों के साथ बड़े दुख से हूँ। मेरी सखियाँ भी पंडित जी के बताये उपाय से काम ले रही हैं। उनकी भी मनोकामनायें पूर्ण हो रही हैं। हम लोगों की एक सनम्र प्रार्थना है कि इन उपायों का प्रचार सब देश में जिस प्रकार हो सके, उसके करने की आप कृपा करें। हमारे समान अनेक दुःखित नर-नारियों का बड़ा उपकार होगा ।

महाराज ने कहा, मुझे बड़ी खुशी हुई जो आप लोगों की सन्तुष्टि हो गयी । कोकापण्डित बड़े विचारी पुरुष हैं। वे लोको- पकार के लिये कुछ उठा न रक्खेंगे ।

दर्वारी लोग भी बड़े प्रसन्न हुए । उनकी श्रद्धा भी कोका परिढत के प्रति बहुत बढ़ गयी ।

[ ५ ]

कुछ वर्षों के बाद कोका पण्डित ने 'कोक मञ्जरी' नामक एक ग्रन्थ लिखकर महाराज के हाथ में दिया। महाराज ने उसे आद्यो- पान्त पढ़ा | पढ़कर बड़े प्रसन्न हुए और बोले—कोक मंजरी के बजाय इसका नाम “कोकशास्त्र" खखा जाय तो अच्छा है, क्योंकि आपके ‘काक मंजरी' शब्द का तात्पर्य आपसे किये हुए अनेक मत का संग्रह है । आपने दूसरे मतों का दिग्दर्शन अवश्य कराया है। किन्तु उनकी तरकीब और अनुभवी औषधियों का योग आपकी कृति है । इस लिये दूसरों के लिये वही शासन का बनाने वाला सिद्ध होगा । सच तो यह है कि मुझे कोकशास्त्र नाम हो अधिक प्यारा प्रतीत होता है ।

कोका पण्डित ने कहा, – जैसी आपकी इच्छा। मुझे कोई एतराज नहीं ।

उस दिन से यह ग्रन्थ कोकशास्त्र के नाम से प्रसिद्ध हुआ । इसमें जिन सुगम उपायों का वर्णन किया गया है, वह पढ़ने से ही मालूम हो सकता है । यद्यपि इनमें भी वाममर्गियों ने बहुत कुछ मेल-जोल किया, जैसे चौरासी आसन आदि । किन्तु यदि संशोधन पूर्वक काम लिया जाय तो किसी प्रकार की हानि नहीं हो सकती ।

कोका परिडत का यह संक्षिप्त जीवन पाठकों की भेंट किया गया। 

यह असली कोका तंत्र हमने आपको उपलब्ध करवाया है। और ये बिल्कुल निशुल्क है आप इस नीचे डाउनलोड बटन पर क्लिक करके प्राप्त करे सकते है।

अगर हमारा कार्य अच्छा लगे तो जरूर हमारे चैनल को सब्सक्राइब करें।



सूचना: अगर इस पेज पर दी हुई सामग्री से सम्बंधित कोई भी सुझाव, शिकायत या डाउनलोड नही हो रहे हो तो निचे दिए गए "Contact Us” के  माध्यम से सूचित करें। हम आपके सुझाव या शिकायत पर जल्द से जल्द अमल करेंग:

👁 ध्यान देंः
तो मित्रौ हमें उम्मीद है, कि आपको हमारी यह पोस्ट पसंद आई होगी। और यदि पोस्ट पसंद आई है, तो इसे अपने दोस्तों में शेयर करें ताकि आपके दोस्तों को भी इस पोस्ट के बारे में पता चल सके। और नीचे कमेंट करें, कि आपको हमारी यह पोस्ट कैसी लगी। यदि आपका कोई प्रश्न है, तो नीचे 👇 Comment बॉक्स में हमें बताएं।

यह भी पढ़ेंः धरती में गड़ा धन पाने का सबसे सरल और 100% कारगर उपाय।। "
शाबर मंत्र सागर भाग-२ पुस्तक PDF Download;"
कृपया हमारे चैनल को सब्सक्राइब करके 👉

आप हमसे हमारे फेसबुक ग्रुप और टेलीग्राम ग्रुप में जुड़ सकते हैं। और हमारे ब्लॉग से जुड़ कर भी हमें सहयोग प्रदान कर सकते हो।

फेसबुक ग्रुप - https://www.facebook.com/groups/715119132723959

टेलीग्राम ग्रप - https://t.me/shreerampriwar

हमरा चैनल - https://www.youtube.com/c/ShreeRamPriwar

अगर आपको हमारा कार्य अच्छा लग रहा है तो हमें सहयोग प्रदान करें और जो भी वीडियो देखे उसे कृपा करके पूरा देखें।

पुस्तक - Download

पुस्तक खरीदें - खरीदे

अगर अभी तक आपने हमारे चैनल को सब्सक्राइब नहीं किया तो कृपया करके सब्सक्राइब करें।
आपका बहुत-बहुत धन्यवाद।
🌹🏵️ ।।जय मां भवानी।।



#शाबर_मंत्र_सागर #मंत्र_पुस्तक #मंत्र #साधना_पुस्तके #साधना_विधि #मंत्र_साधना
#जय_श्री_राम #Shree_Ram_Privar #ShreeRamPrivar #shreeramprivar

एक टिप्पणी भेजें

1 टिप्पणियाँ