ध्यान और कुंडलिनी की महाशक्ति


ध्यान क्या है ? 

किसी भी मनुष्य का सभी बाहरी कार्यों से विरक्त होकर किसी एक कार्य में लीन हो जाना ही ध्यान है। आशय यह है कि किसी एक कार्य में किसी का इतना लिप्त होना कि उसे समय,मौसम,एवं अनय शारीरिक जरूरतों का बोध न रहे इसे ही ध्यान कहते हैं।  यह एक सामान्य परिभाषा है जो कि एक सामान्य जनमानस के द्वारा दी गई है। इस परिभाषा की गहराइयों को आज तक कोई नहीं समझ सका , लेकिन आज इस पोस्ट में हम आप सभी को इस परिभाषा की गहराइयों को ध्यान की गहराइयों को समझाने का प्रयास करेंगे।

ध्यान जीवन है इस का समय के साथ कोई संबध नही होता है ये समय से परे है और यही जीवन है ध्यान का मतलब है अपने में स्थिर होना और अपनी चेतना के साथ जीना जो समय से परे है असल में समय का बोध न होना ही ध्यान है।

ध्यान की परिभाषा क्या है ?

ध्यान के विषय में बहुत कुछ लिखा गया और कहा भी जाता है परन्तु किसी की पकड़ में नहीं आता। इस का कारण यह है कि ध्यान ईश्वर की तरह अनुभूति की चीज है। यह तर्क-विर्तकया अध्यन की चीज नहीं है| ध्यान पकड़ में अनुभव एवं अभ्याससे ही आएगा। मन ही मनुष्य के मोक्ष तथा बँधन का कारण है।

   मनुष्य खाली मांस, मज्जा और हड्डी का ही पुतला नहीं है। ब्लकि उस में मन भी है। मन में भिन्‍न भिन्‍न प्रकार के विकार और संस्कार भरे पड़े हैं। बचपन से मन पर जिस जिस विषयका प्रभाव पड़ा है वहीं उस का कुछ न कुछ असर पड़ा है। जिस समय उस पर काम, क्रोध, अंहकार और राग द्वेष का जोर पड़ता है तो उसी समय उस का प्रभाव शरीर पर, श्वास और मन पर, पड़ता है| क्रोध में शरीर पर Control खत्म होजाता है , गति बदल जाती है , शरीर कांपने लगता है , रंगपीला पड़ जाता है। शरीर पर दिखाई देने वाले प्रभाव से कहीं अधिक प्रभाव मन पर पड़ता है। यह सब संस्कारों के रुप में मन के किसी न किसी भाग में थमे रहते हैं | ध्यान सब के लिए आवश्यक है। इस के बिना जीवन दिन प्रतिदिन कठिनाइयों में धंसता जा रहा है। ध्यान लगे या न लगे, हर व्यक्ति को 5-10 मिनट अभ्यास करना चाहिए। इस post में हम कुछ मौलिक-बुनियादी प्रश्नों का उत्तर देने का प्रयास कर रहे हैं। ताकि कुछ-कुछ आप की समझ में आ जाए। आप की पकड़ में आ सके और आप ध्यान की गहराईयों में उतर सकें। 

Meditation

ध्यान कया है, ध्यान क्‍यों करें ? कैसे और कब करें ?

ध्यान की व्याख्या

ध्यान की व्याख्या करना इतना ही कठिन है जैसे आकाशको घड़े में बन्द करना, गागर में सागर को भरना।

जैसे सुन्दरता, अच्छाई या भगवान की व्याख्या करना कठिन है। इन सब चीजों का अनुभव किया जा सकता है परन्तु वर्णन करना सरल नहीं है। इन्हे शब्दों में बाँधना सरल नहीं है। ऐसी चीजों की परिभाषा अपूर्ण होगी। फिर भी हम आपको समझानें के लिए इन चीजों की परिभाषा करने का यत्न करते है। इसी सोच से ध्यान का वर्णन भी किया जाता है। 

 हम यू भी कह सकते हैं कि ध्यान चित्त की निर्विकार अवस्था है। जब हमारा मन एकाग्र हो कर शान्त अवस्था में आता है, तब ध्यान लगता है। खाली चेतन (conscious) मन ही नहीं केवल अवचेतन और अचेतन (Subconscious and Unconscious) जब तक सक्रिय है तब तक मन नहीं लग सकता।

 चेतन + अवचेतन + अचेतन = 3 स्तरों को मिला कर चित्त बनता है।

इसी लिए (महार्षि) पतंजिल जी ने योग की परिभाषा देते हुए कहा है "योगः चित्त वृति निरोधः"

योग चित्त की वृतियों (Tendencies) का निरोध या रुक जाना। मन की क्रियाएँ, क्रिया क्लाप तीनों स्तरों पर बन्द हो जाते हैं। तब हम ध्यान की गहराई, समाधि में पहुँचते हैं। यह वह अवस्था हैं जब शरीर और मन के पार - आत्मा के स्तर पर पहुँच जाते हैं। यह शुद्ध चेतन है। चेतन और कुछ भी नहीं | वहाँ पहुँचने पर परम आनन्द की अनुभूति होती है। 

पहुच यह शुद्ध चत चतन और कुछ भी नहीं हा पहुँचने पर परम आनन्द की अनुभूति होती है। Technique या प्रक्रिया के हिसाब से हम यूँ कह सकते हैं कि अन्तर्जगत की यात्रा या आत्मानुसंधान का ऐसा तरीका जिस के द्वारा साधक अपने अस्तित्व की गहराइयों में प्रविष्ट होता है। यहाँ पर वास है जीवन स्तोत्र का । शान्ति और आनन्द का।

ध्यान मन की इस खण्डित और द्वन्द्वात्मक स्तर के पार जाने का नाम है। ध्यान की परिभाषा निम्न शब्दों में ही कर सकते हैं।

ध्यान क्यों करे। ध्यान क्यों लगाया जाए।

इस के पहले हमें देखना है कि ध्यान में हम करते क्या हैं और करना क्या है। ध्यान के द्वारा हम सोई हुई शक्तियों को जागृत करते हैं।

अष्टांग योग के अनुसार हमारा शरीर सात हिस्सों यानि की सात चक्रों में बंटा हुआ है। सात हिस्सों को हम शास्त्रिय भाषा में साधना चक्र कहते हैं ।

इनका सम्बन्ध "कुण्डलिनी शक्ति" से है। कुण्डलिनी क्या है। इस का वर्णन करने का प्रयत्न कर रहा हूँ।


कुण्डलिनी

कुण्डलिनी महाशक्ति प्रकृति की सर्वोच्च उर्जा है, महाशक्ति है। यह महाशक्ति सुप्त अवस्था में मूलाधार चक्र की जड़ में साढ़े तीन चक्र लगा कर नीचे की तरफ मुहँ कर अपनी पूंछ अपने ही मुंह में दवा कर विराजमान है। मस्ती मे बैठी हुई है। उर्जा शक्ति होने के कारण यह महाशक्ति सुप्तावस्था में भी मनुष्य के शरीर में अपना कार्य करती है। कुण्डलिनी को जानने से पहले, सातों चक्रों का ज्ञान होना बहुत जरुरी है। इस के साथ-साथ साधक को शरीर तन्त्र का पूरा ज्ञान होना आवश्यक है।

सत्यता यह है कि प्राणों को नियंत्रित कर के ही कुण्डलिनी शक्ति जागृत की जाती है।

श्री योगीश्वर भगवान शंकर जी ने इसे नियंत्रित करने के लिए 400 विधियां बताई हैं। मन, प्राण को शान्त करने वाली विधियों में से किसी विधि को अपनाकर अपने प्राणों की कुण्डलिनी महाशक्ति हेतु शुद्ध कर सकता है।

शक्तिपात भी एक चम्तकारक मार्ग है। यह केवल योग्य गुरु के द्वारा ही सम्भव है। यह कुण्डलिनी महाशक्ति निरन्तर ध्यान साधना करने से, गुरु कृपा, ईष्ट कृपा से भी जागृत हो जाती है। पुराने समय से ही योग विज्ञान के अंर्तगत विभिन्न योग क्रियाओं का विस्तार के साथ वर्णन है।

जैसे पातंजल योग, मंत्र योग, ध्यान योग, तन्त्र योग, स्वर योग, जप योग, शक्ति योग इत्यादि । कितने ही योग मार्गों का Detail में विस्तार रुप से हमें शास्त्रों में वर्णन मिलता है।

     इन योग साधनाओं का नियमित अभ्यास करने से साधक की सब से बडी शक्ति का आधार, परम महाशक्ति कुण्डलिनी के ध्यान की गहराई एकाग्रता की स्थिति उत्पन्न होने लगती है । उस समय शक्ति दायनी कुण्डलिनी स्वरुपा सिद्धि के स्थल में एक विशेष प्रकार की स्पन्दन (Sensation) शुरु हो जाती है। कई साधकों के प्रारम्भिक समय में ही साधारण सी स्पन्दन (Sensation) होने लगती है। अगर साधक को किसी भी योग चक्र को थोड़ा सा भी जागृत करना हो तो उसे उसी चक्र पर ध्यान को केन्द्रित करना चाहिए। ऐसा करने से उस स्थान पर चक्र पर दिव्य शक्ति निवास करती है, धीरे-धीरे जागृत होने लगती है, विकसित होने लगती है।

सब से पहले मूलाधार चक्र में ( लं ) शब्द है। यह इस का बीज मंत्र है। इस का निरन्तर जप करने से और ध्यान करते रहने से, इस चक्र की शक्तियों का उदय होता है। कुण्डलिनी जगाने से पूर्व साधक के लिए जरूरी है कि वह लगातार अभ्यास और साधना से मूलवन्ध को मजबूत करे परिपक्व अवस्था में पहुँचा दे।

"मूलवन्ध" साधना की परिपक्व अवस्था को प्राप्त होते ही साधक की संकल्प एवं धारण शक्ति अत्यन्त प्रवल हो जाती है। साधक की वाणी, आकृति एवं दृष्टि में एक विशेष आकर्षण उत्पन्न हो जाता है। उसी में सम्मोहन शक्ति का विकास भी होता है। साधारण व्यक्ति स्वाभविक ही उस की और आकर्षित होने लगते हैं। सम्पर्क स्थापित होने पर उन्हे साधक का ध्यान बार-बार आता रहता है। 

कुण्डलिनी शक्ति को जगाने के लिए "मूलवन्ध" ही महाशक्तिशाली सशक्त माध्यम है। उसकी कुंजी है। यह तथ्य साधक भली भांति जान लें, समझ लें कि इस मार्ग पर चलते हुए "मृत्यु" तो कभी भी नहीं हो सकती क्योंकि इस मार्ग पर चलने से मृत्यु पर विजय प्राप्त कर ली जाती है। आखिर में मैं यही कहना चाहूँगा की जो साधक अपनी मानसिक इच्छाओं कामनाओं या जो भी अनुचित्त वृत्तियाँ हैं, उन सब पर साधना द्वारा अंकुश लगा लेता हैं । अँकुश लगाने की इच्छा शक्ति प्राप्त कर लेता है। अभिमान के बिना, आत्म विश्वास के साथ योग साधना निरन्तर करता हैं


साधक को इस महाशक्ति की साधना का अधिकार प्राप्त हो जाता है। जो बिना गुरु, जल्दी-जल्दी, बिना निर्देश साधना शुरु करता है, उस का शीघ्र पतन हो जाता है।

       जितने भी लोग अलग अलग योग केन्द्रों, संस्थानों से जुड़े हुए हैं, जो आसन प्राणायाम का नित्य आम्यास करते हैं, उन्हें कुछ न कुछ तो लाभ होता है, तभी वह वहाँ जाते हैं। निद्रा का त्याग कर के प्रातः शीघ्र पहुँचते हैं, ऐसे तो कोई प्राणी भी समय बर्बाद नहीं करता। स्वास्थ्य में सुधार आए या मन एकाग्र हुआ हो या शान्ति प्राप्त होती हो इसलिए आसन प्राणायाम अच्छे नतीजे ला रहे हैं। परिणाम आशा से अधिक अच्छे हैं। योग के नियमों पर चलने से एक अच्छा योगी बना जा सकता है। अगर योगी न बने तो कुछ न कुछ उधार की और अग्रसर होगा। जीवन का कुछ मार्ग निकलता है।

योग के आठ अंग कौन-कौन से हैं

यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि। हमें योग के आठों अंगों का थोड़ा-थोड़ा अभ्यास करना चाहिए।


योग का लक्ष्य क्या है ?

योग का लक्ष्य है, परमात्मा की अनुभूति, परमानन्द की प्राप्ति । केवल आसन-प्राणायाम से सम्भव नहीं हैं। इसके लिए अष्टांग योग पर चलना आवश्यक है।

जीवन में सुख दुख आते-जाते हैं। धूप के साथ छाया, धन के साथ निर्धनता, रात के साथ ब्रह्ममहूर्त, देवताओं के संग राक्षस सुख-दुख एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। दो sides हैं। आते हैं, जाते हैं। सदा टिकने वाला कोई नहीं है। दुनिया, यह जगत क्षणभंगुर है, द्वान्द्वात्मक है, नाशवान है। दुनिया की जो चीज़ भी हम प्राप्त करें, वह रहने वाली नहीं है। उस से प्राप्त सुख भी क्षणभंगुर और नाशवान होगा। श्री "कृष्ण जी" ने श्री गीता जी में जैसे कहा है कि स्थिर बुद्धि वाला व्यक्ति कहीं भी किसी भी परिस्थिति में घबराता नहीं है। स्थिर बुद्धि वाला व्यक्ति, राग द्वेष, भयक्रोध और डर से मुक्त होता है। संसार में हम जितनी भी धन-दौलत मान सम्मान, बड़े से बड़ा पद प्राप्त कर लेते हैं, उससे मिलने वाला सुख तनिक मात्र होगा। मिठाई फल खाने से आप को आनन्द आ रहा है परंतु कब तक ! अन्त में आप ऊब जायेंगे। ऊब जाने पर सुख, दुख में बदल जायेगा। यह जो साँसारिक सुख है, वह शरीर और मन के स्तर (level) पर अनुभव महसूस किया जाता है परंतु ध्यान का आनन्द आत्मा के स्तर पर महसूस किया जाता है। शरीर और मन दुनिया की अस्थाई चीजें है। रहने वाली नहीं हैं। यह सब परिवर्तनशील हैं। जो लोग ध्यान की गहराई में गए हैं समाधि में उत्तरे हैं, उन्होंने महसूस किया है कि शरीर और मन से परे आत्मा का स्तर है। वहां कुछ बदलने वाला नहीं है। वहां पर हमें जिस आनन्द, सुख की अनुभूति होती है वह स्थायी है- वह परिवर्तन शील नहीं - है। शाश्वत है। कोई दुख-सुख, कोई उत्तार चढ़ाव नहीं कर सकता। कोई विचलित नहीं कर सकता। यह अनुभव उन को हुए, जो ध्यान की गहराई में उत्तरे हैं। वहां पहुंचने के लिए एक बड़ा ही वैज्ञानिक तरीका हमारे ऋषि-मुनियों ने बताया है। पाँतजलि का अष्टांग योग, एक ऐसा ही मार्ग है। यह मार्ग बहुत ही वैज्ञानिक मार्ग है।

हम जीवन की Materialistic दौड़ में जितनी भी भाग-दौड़ कर लें धन-दौलत या और समान जितना भी इकट्ठा कर सकते हैं कर लें, फिर भी अशांति और वेचैनी में ग्रस्त हैं। हर समय अशांति छाई रहती है। इस का कारण है कि हम सब परमात्मा से आए हैं और जब तक वहां नहीं पहुंच जाते, तब तक वेचैनी ही रहेगी। जैसे नदी, समुद्र से उठने वाली भाप, जो वर्षा और बर्फ के रूप में जमीन पर आती है, जब तक फिर समुद्र में विलीन नहीं हो जाती बेचैन रहती है। मानों हम उसे बाँध बना कर रोकें तो भी टकराती रहेगी। कब तक टकराती रहेगी। अपनी मंजिल पर पहुंचने तक |

योग-ध्यान अधिक लोकप्रिय क्यों है ?

 ध्यान यह एक वैज्ञानिक पद्धति है। जिस दौर से हम गुजर रहे हैं, यह science का युग है। आज के मनुष्य के लिए ध्यान पद्धति, दूसरी पद्धतियों भक्ति, वैराग्य आदि से अधिक अनुकूल हैं । यही कारण है कि योग-ध्यान अधिक लोकप्रिय होते जा रहे हैं। आसन प्राणायाम तक ही रूक जाते हैं। आगे बढ़ेंगे तो ध्यान की गहराई में जायेंगे।

ध्यान कब और कैसे करें ?

ध्यान कब और कैसे करें । ध्यान या कोई भी अध्यात्मिक साधना हो, उसके लिए सब से उत्तम समय है ब्रह्मबेला ( ब्रह्ममहूर्त) । सूर्य निकलने के दो घंटे पहले यानि 6 बजे के भीतर-भीतर क्योंकि इस समय प्रकृति शान्त, मधुर और मौन होती है। कोई गाड़ियों का शोर नहीं होता। धूल नहीं होती। चारों तरफ वातावरण शान्त मिल जाता है। रात की निद्रा के बाद, मन भी शान्त होता है। अगर आप "ब्रह्मबेला" का उपयोग न कर सकें तो सन्ध्या बेला यानि शाम का समय भी प्रयोग कर सकते हैं। जब मन सध्या जाता है, तब कभी भी गहराई में उत्तर सकते हैं। श्री राम कृष्ण परमहंस जी" और श्री शिर्डी "सांई बाबा जी" बात करते ब्रहम अवस्था में होते थे, हम यूं कह लें तो बहुत ही अच्छा हो कि वह रहते ही 24 घण्टे ब्रह्म अवस्था में थे।


 ध्यान कैसे करें

ध्यान की नाना प्रकार की विधियां (Techniques) हैं। आते-जाते श्वास पर ध्यान, शरीर में होने वाली क्रिआयों या विचारों पर ध्यान, भृकुटि पर ध्यान, नासिका के अग्रभाग पर ध्यान, ध्यान चक्रों पर ध्यान । शुरू में साधक को कई विधियो पर अभ्यास करना चाहिए। जो विधि सरल समझें, उपयुक्त समझें, उसी पर टिक जाएं। जिस विधि से मन को शांति मिले, वही विधि अपना लेनी चाहिए और अभ्यास प्रतिदिन करना चाहिए। ध्यान करने से पहले कुछ शारीरिक अभ्यास करें। फिर कुछ प्राणायाम क्रिया करें। ध्यान के लिए यह सब ज़रूरी है ताकि मानसिक एवं शारीरिक थकावट या निद्रा तंग न करे, विघ्न न डाले। मन बहुत ही चंचल है। यह बात तो हर मनुष्य जानता है। यह मछली की तरह, एक मिन्ट भी कहीं टिकने नहीं देता। नियमित अभ्यास और वैराग्य द्वारा (De tachment) द्वारा धीरे-धीरे काबू पाया जा सकता है। "श्री कृष्ण जी" गीता जी में बार-बार दोहरा रहे हैं ( बता रहे हैं) की शुरू में कामयाबी न मिले तो घबराना नहीं चाहिए।


ध्यान किस लिए करें

ध्यान करने वाले साधक या योगी का मन शान्त होता है। मन स्थिर हो जाता है। मानसिक एवं शारीरिक लाभ भी होते हैं। सुख-दुख उसे विचलित नहीं कर सकते। उसे परेशान नहीं कर सकते क्योंकि वह स्थिर हो चुका होता है। सुख-दुख की परिभाषा जान चुका होता है। वह न दुख सुख में खुश में घबराता है न होता है। संसार में जो कुछ भी हो रहा है, वह दुष्टा भाव से देखता है। वैज्ञानिकों ने Experiments कर के देखा है कि ध्यान की साधारण अवस्था में भी मस्तिषक में "अल्फा" तरंग चलने लगती है। जिससे साधक को शान्ति और आनन्द का एहसास होने लगता है। हमारे शरीर की सोई हुई ग्रन्थियां भी जागृत हो जाती हैं। आज का युग तनाव और Race - Tension का युग है। इसलिए ध्यान की युक्ति बहुत लाभकारी और आवश्यक है। जिससे हमारे जीवन में सुख और शान्ति का वास हो जाता है।

कुछ विस्तार से उदाहरण मान लो मनुष्य सोया नहीं है, जाग रहा है, अपना मकान, गाड़ी, जमीन जयदाद, - पत्नी - बच्चे देख रहा है परंतु रहता बेचैन है। उसे इन सब को - देख कर प्रसन्न रहना चाहिए, शान्त होना चाहिए परंतु रहता बेचैनी और घबराहट में है। जब सो जाता है, तब सब कुछ गायब हो जाता है, ओझल हो जाता है। कुछ भी दिखाई नहीं देता। सत्यता में चला जाता है। जब नींद से उठता है तो कहता है की अभी थोड़ी नींद और आ जाती तो कितना आनन्द होता । कितना आनन्द आ रहा था। इसका अर्थ है कि जो वस्तुए दिख रहीं है, वह सब नाशवान तो नाशवान में शान्ति कहां। जो नहीं दिख रहा था वह शाश्वत था । उस में सुख ही सुख था इसलिए हमारे भारतीय ऋषियों ने सोचा कि अपने अन्दर जा कर देखें । अन्दर में प्राप्त होने वाला सुख भी क्षणभंगुर तो नहीं है परंतु अन्तर जगत की यात्रा के बाद जिस आनन्द के स्त्रोत का पता लगाना भारत की सब से बड़ी देन है, यह महसूस हुआ कि हमारे अन्दर एक ऐसे तत्व का निवास है जो अपरिवर्तनशील ( न बदलने वाला) चेतन और आनन्दमय है। उन्होंने इसे 'सच्चिदानन्द' या फिर सत्त चित्त आनन्द कहा है। अन्दर की खोज से पता चला कि हम केवल हड्डियों, मांस और मज्जा का पुतला मात्र नहीं हैं। हम इससे परे हैं। शाश्वत और आनन्द स्रोत हैं तो हम आनन्द को प्राप्त क्यों नहीं कर सकते। इसकी प्राप्ति में सब से बड़ी बाधा - मन है। मन साथी भी – अभिशाप भी और वरदान भी है। इसलिए कहते हैं - कि मन और मस्तिष्क के कारण मनुष्य आज पृथ्वी का राजा बना हुआ है। इसकी कृपा के कारण उसने प्रकृति के कई रहस्यों का उद्वघाटन किया है। विज्ञान के क्षेत्र में उसने कई उपलिब्धयां की हैं।

जो व्यक्ति अपने मन पर पूर्ण रूप से नियंत्रण पा लेता है। वह व्यक्ति सभी प्रकार की सिद्धियों का स्वामी बन जाता है और उसकी सभी प्रकार की मनोकामनाएं अपने आप पूर्ण होने लग जाती है। उसका व्यक्तित्व एक अलग प्रकार का व्यक्तित्व हो जाता है। ध्यान और मन के शक्तियों से संबंधित यह पोस्ट में आपको उपलब्ध करवाई है। इसके अंदर हमने आपको कुंडलिनी के बारे में भी बताया है। अगर आपको यह पोस्ट पसंद आई हो तो आप जरूर बताइएगा।

 मन की सभी शक्तियों को अष्टांग योग द्वारा जागृत किया जाता है और भी कई रास्ते हैं इसे जागृत करने के, इन रास्तों के बारे में हम आपको किसी अन्य पोस्ट में बताएंगे आज की इस पोस्ट में बस इतना ही आप सभी का तहे दिल से हार्दिक धन्यवाद।

।। जय मां भवानी ।।

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🌹🏵️ ।।जय मां भवानी।।



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