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श्री तारा तंत्र पुस्तक Pdf बिल्कुल फ्री. Shri Tara-Tantram pdf.


श्री राम परिवार (Shree Ram Pariwar) में आपका हार्दिक स्वागत करता है। तन्त्र की दश महाविद्याओं में द्वितीय महाविद्या तारा, भगवती आधाकाली का ही रूप है । अन्य महाविद्याओं की अपेक्षा शीघ्र प्रसन्न होने के कारण साधक वर्ग में पराम्बा तारा की साधना के प्रति प्रबल आकर्षण पाया जाता है। इन देवी की साधना मुख्यतः उनके तीन स्वरूपों में की जाती है- “उग्रतारा', *एकजटा' और “नील सरस्वती ' ।

भगवती तारा सदैव विपत्तियों, बाधाओं से तारने वाली, सुख और मोक्ष प्रदान करने वाली, और उग्र आपत्तियों से रक्षा करने वाली हैं । इन्हीं कारणों से इन्हें “उग्र तारा' कहा गया है। इनकी साधना से चतुर्वर्ग की प्राप्ति होती है । “कैवल्य' प्रदान करने वाली देवी तारा की साधना *एकजटा' के रूप में की जाती है तथा ज्ञान-प्राप्ति के लिए भगवती तारा की आराधना “नील सरस्वती' के रूप में की जाती है ।



तारा शक्ति का शाब्दिक अर्थ है- तरत्यनया, सा तारा- अर्थात्‌ इस संसार से जो तार दे, वह तारा । “तारा' शब्द के यूं तो बहुत से अर्थ हैं परन्तु यहां इस शब्द का प्रयोग एक ऐसी देवी (शक्ति) के लिए किया जा रहा है, जिसे विविध धर्मों के लोग सम्पूर्ण श्रद्धा एवं विश्वास के साथ पूजते हैं । वे चाहे ब्राह्मण हों, बौद्ध हों अथवा जैन धर्म के अनुयायी हों । महाविद्याओं की गणना में इनका स्थान दितीय है, जिस कारण इन्हें द्वितीया भी कहा जाता है । हमारे तन्त्र ग्रन्थों में स्पष्ट रूप से लिखा है कि महाविद्या तारा की उपासना बौद्ध मत के अनुसार ही करनी चाहिए अन्यथा यह सिद्ध नहीं होती । 

इस सम्बन्ध में 'आचार तन्त्र' में वशिष्ठ मुनि द्वारा की गयी आराधना का वर्णन किया गया है। उनकी उपासना के सम्बन्ध में कहा गया है कि जब वे भगवती तारा की आराधना करते-करते निराश हो गये तब उन्हें चीनाचार ' के अनुसार तारा की आराधना करने का निर्देश आकाशवाणी के माध्यम से मिला । तब उन्होंने उसी प्रकार तारा की उपासना की और तभी उन्हें सिद्धि प्राप्त हुई । “चीनाचार' को सीखने के लिए वे चीन गये और बुद्ध से तारा-उपासना का विधान सीखकर तारा को सिद्ध किया। इससे यह स्पष्ट हुआ कि भगवती तारा का पूजन-अर्चन पहले बौद्ध सम्प्रदाय में हुआ । “स्वतन्त्र तन्त्र' में लिखा गया है कि-

“मेरो: पश्चिमकूले तु चोलनाख्यो हदो महान्‌।

तत्र जज्ले स्वयं तारा देवी नील सरस्वती॥”

तात्पर्य यह है कि भगवती तारा मेरू पर्वत के पश्चिम में उत्पन्न हुई थीं। इससे प्रतीत होता है कि इनकी उपासना की शुरुआत लददाख के आस-पास कहीं हुई होगी। लदूदाख और तिब्बत में वर्तमान में भी भगवती तारा की उपासना अधिसंख्य साधकों द्वारा की जाती है। पांचवीं शताब्दी के लगभग जावा या यवद्ीप में लिखे गये लेखों तथा ग्रन्थों में भी भगवती तारा का उल्लेख मिलता है ।



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“ब्रह्माण्ड पुराण' के *ललितोपाख्यान' में भगवती तारा का वर्णन किया गया है। उसमें कहा गया है कि- भगवती तारा मनसु नाम के महाशाल स्थित एक अमृतवापिका के द्वार की रक्षा करती हैं । वहां नौका के बिना और तारा की आज्ञा के बिना कोई भी नहीं जा सकता है। वहां देवी तारा की अनेकों दासियां निवास करती हैं जो वापी के आर-पार आती-जाती रहती हैं । वे तारा का यशोगान करती हैं और नृत्य व गायन करती रहती हैं । तारा और तरण शक्तियों का मिलन बहुत ही सुन्दर है और ताराम्बा ही जलौघ-जन्य संकटों को दूर करने में सक्षम हैं-


आज़ञां विना तयोस्तारा मल्त्रिणी-दण्ड-नाथयोः।

त्रिनेत्रस्यापि नो. दत्ते वापिकाम्भसि सान्तरम्‌॥

तारा-तरणि-शक्तिनां.. सम-वायोऊति-सुन्दर:।

इत्थं. विचित्र-रूपाभिनौकाभि: परिवेष्टिता॥

ताराम्बा महतीं नौकामधि - गम्य विराजते॥


आदाशक्ति भगवती काली को ही नीलरूपा होने के कारण तारा भी कहा गया है। वास्तव में तारा सर्वदा मोक्ष प्रदान करने वाली, तारने वाली, उग्र संकटों को समाप्त करके साधक को मुक्त करने वाली हैं। इसीलिए इन्हें '्तारा' नाम दिया गया है। अनायास ही ये देवी वाक्‌शक्ति प्रदान करने में सक्षम हैं, इसीलिए इन्हें 'नील सरस्वती" कहा जाता है। भयंकर कष्टों से, आपदाओं से ये अपने भक्तों की रक्षा करने वाली हैं, इसलिए इन्हें “उग्र तारा” नाम दिया गया है।“हयग्रीव' का वध करने के कारण इन्हें नील विग्रह प्राप्त हुआ था।ये नील वर्ण वाली, नील कमलों के समान, तीन नेत्रों वाली तथा हाथों में कैंची, कपाल, कमल और खड्ग धारण करने वाली हैं ।

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।।जय मां भवानी।।

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